शनिवार, 24 मई 2025

भारत के न्याय प्रणाली कितना सुलभ जो न्याय पाने ने जीवन गुजर जाता है

 लखन पुत्र मंगली की कहानी, जिन्हें 43 साल जेल में रखने के बाद 103 साल की उम्र में बाइज्ज़त बरी किया गया, भारतीय न्याय व्यवस्था की जटिलताओं और चुनौतियों को उजागर करती है. यह घटना न्याय और अन्याय के बीच की महीन रेखा पर गंभीर सवाल खड़े करती है.

   


43 साल का इंतज़ार और एक शताब्दी की उम्र

लखन को 1977 में हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. 1982 में निचली अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई, लेकिन लखन का कहना था कि वह निर्दोष हैं | उन्होंने उसी साल इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की. चौंकाने वाली बात यह है कि उनकी यह अपील 43 साल तक चलती रही  | और इस दौरान लखन जेल में ही बंद रहे. अंततः 2 मई 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें बाइज्ज़त बरी करने का आदेश दिया, जब उनकी उम्र 103 वर्ष हो चुकी थी |

यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या 43 साल का इंतज़ार, जिसमें एक व्यक्ति की पूरी जवानी और बुढ़ापा जेल में कट जाए, न्याय कहा जा सकता है? जिस व्यक्ति को निर्दोष साबित होने में इतना समय लगा, उसे उसके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष किसने लौटाए?

न्याय कितना महंगा है?

यह कहानी भारतीय न्याय प्रणाली में एक और गंभीर समस्या को सामने लाती है: न्याय की बढ़ती लागत. जैसा कि खबर में बताया गया है, भारत में मुकदमा लड़ना बहुत महंगा है. वकीलों की फीस, अदालती प्रक्रियाएँ और सालों तक चलने वाले मुकदमों का खर्च आम आदमी की पहुँच से बाहर होता जा रहा है | लखन जैसे गरीब व्यक्ति के लिए हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में महंगे वकीलों का खर्च उठाना असंभव है |

कई लोग न्याय पाने के लिए अपनी ज़मीनें, मकान बेच देते हैं या कर्ज लेते हैं. इसके बावजूद, न्याय मिलने की कोई गारंटी नहीं होती और अक्सर लोगों की पूरी ज़िंदगी मुकदमेबाजी में गुजर जाती है. यह स्थिति उन गरीब और वंचित लोगों के लिए और भी कठिन हो जाती है, जो आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण न्याय से वंचित रह जाते हैं|

अंतिम उम्मीद, लेकिन कितनी सुलभ?

आज भी भारत में लोग अदालत को अपनी अंतिम उम्मीद मानते हैं. जब हर जगह से निराशा मिलती है, तो लोग कहते हैं, "मैं मुकदमा करूँगा, मैं अदालत जाऊँगा." यह लोगों का न्याय प्रणाली पर विश्वास दिखाता है, लेकिन क्या यह विश्वास हमेशा बरकरार रह पाता है, खासकर लखन जैसे मामलों में?

न्याय व्यवस्था चलाने वाले लोगों को इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि न्याय कितना महंगा हो गया है और यह सुनिश्चित करना होगा कि हर व्यक्ति को, चाहे वह कितना भी गरीब क्यों न हो, समय पर और उचित न्याय मिल सके. लखन की कहानी हमें यह भी याद दिलाती है कि न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है|

लखन की रिहाई एक जीत है, लेकिन यह उन अनगिनत लोगों के लिए एक कड़वी सच्चाई भी है जो आज भी हमारी न्याय प्रणाली की धीमी गति और उच्च लागत से जूझ रहे हैं. क्या इस घटना से हमारी न्याय प्रणाली में कोई सुधार आएगा?