सोमवार, 5 जुलाई 2021

फसल किसे कहते है विभिन्न प्रकार के फसलों के बारे में बताएं

 

          फसल क्या है

   भोजन प्राप्ति के लिए जब एक ही प्रकार के पौधों को किस स्थान पर बड़े पैमाने पर उगाया जाता है | तब उसे फसल कहा जाता है |

      फसल कई प्रकार के होते हैं

          खाद्यान्न फसले 

          नगदी फसलें 

          पेय फसले 

          रेशेदार फसले 

          तिलहन फसले 

          अन्य फसले 

               विश्व की प्रमुख खाद्यान्न फसलें

                                 गेहूं





 गेहूं फसलें  विश्व में सर्वाधिक क्षेत्रफल पर बोई जाने वाली फसल है | विश्व में सिंचाई का सबसे अधिक उपयोग गेहूं की खेती के लिए ही होता है या मुख्यता शीतोष्ण कटिबंधीय फसल  है | लेकिन इसे उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंध क्षेत्रों में भी पैदा किया जाता है |

          गेहूं के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां

   *  गेहूं को बोते समय तापमान 10°  C  डिग्री सेल्सियस  बढ़ते समय 15° C  एवं  पकते  समय  20° C  होना चाहिए

 * इसके लिए  वर्षा 50 से 80 सेमी होनी चाहिए |

 * गेहूं के लिए मिट्टी नरम मटियार भारी  दोमट या उपजाऊ काली  मिट्टी होनी चाहिए |

 * जल निकासी की सुविधा  और पकते समय तेज धुप  होनी चाहिए |

          ऋतु के आधार पर गेहूं को दो वर्गों में बांटा गया है

                         शीतकालीन गेहूं

 यह  गेहुं शीत ऋतु नवंबर  एवं दिसंबर में बोया जाता है और ग्रीष्म ऋतु मार्च-अप्रैल  मे काट लिया जाता है | या मुख्य रूप से मध्य एवं निम्न अक्षांशो  में उपजाया जाता है | विश्व के कुल उत्पादन का 80%  गेंहूं शीतकालीन होता है |

                         बसंतकालीन गेहूं

 शीतोष्ण कटिबंध के उन भागों में बसंतकालीन गेहूं उगाया जाता है | जहां शीत ऋतु में अत्यधिक ठंड पड़ती है | वहां  गेहूं वसंत ऋतु में उगाया जाता है | यह अपेक्षाकृत कम समय में तैयार होता है |  विश्व के कुल उत्पादन का मात्र 20% गेहूं बसंतकालीन होता है |

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                             चावल

 चावल एक प्रकार का उष्णकटिबंधीय फसल है | इसकी कृषि मुख्य रूप से उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय  क्षेत्रों में की जाती है | पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर ऐसा माना जाता है | कि चावल की कृषि सबसे पहले चीन में प्रारंभ हुआ इसके बाद इसका विस्तार से दक्षिणी और पूर्वी एशियाई भागों में हुआ |





           चावल के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां

 चावल की खेती के लिए मुख्य रूप से तापमान लगभग 24° C से 27° C  चाहिए |

 वार्षिक वर्षा 125 से 200 सेमी होना चाहिए | यह वर्षा  नियमित रूप से होनी चाहिए |  ताकि खेतों में जल भरा रहे लेकिन या जल बंधा हुआ ठहरा हुआ नहीं होना चाहिए |

    इसके लिए मिट्टी उपजाऊ  दोमट मिट्टी या जलोढ़  मिट्टी होनी चाहिए |

 मानसूनी प्रदेश की जलवायु चावल की खेती के लिए विशेष रूप से उपयुक्त मानी जाती है |

                               मक्का

 गेहूं एवं चावल के बाद मक्का तीसरी महत्वपूर्ण फसल है विकसित देशों में इस फसल का प्रयोग पशु चारे के लिए होता है | जबकि अविकसित देशों में यह लोगों की जीविका का  स्रोत है | ऐसा माना जाता है | कि मक्का का जन्म मध्य अमेरिका में हुआ था जहां ग्रीष्म ऋतु गर्म आर्द्र होती है | वहां मक्का का उत्पादन सर्वोत्तम होता है |  विश्व के मक्का उत्पादन का लगभग 50% उत्पादन संयुक्त राज्य अमेरिका में होता है |






   मक्का उत्पादन के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियाँ

 मक्का उत्पादन के लिए तापमान 18°C से 27°C होना चाहिए |

 इसके लिए वर्षा 50 सेमी से 125 सेमी होना चाहिए लेकिन जल का जमाव हानिकारक होता है |

 मक्का के लिए मिट्टी चिकनी , दोमट मिट्टी होनी चाहिए |

                             जई

 जई  एक प्रकार का खाद्य फसल है इसका सर्वाधिक उत्पादन यूरेशिया के गेहूं क्षेत्र के उत्तर में पाया जाता है इसका दूसरा उत्पादक क्षेत्र उत्तरी अमेरिका में  गेहूं  की पेटी के पूर्व में स्थित है






                 आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां

    जई  कृषि के लिए सभी भौतिक परिस्थितियां आवश्यक होती है | जो गेहूं की कृषि के लिए आवश्यक होती है | लेकिन तुलनात्मक रूप से अधिक जल की आवश्यकता होती है |

                              जौ 

 यह भी एक प्रकार की खाद्य फसलों है | जो अन्य फसलों की तुलना में यह कम समय में तैयार हो जाता है | इसका उपयोग भोजन के अलावा बीयर एवं शराब के निर्माण में भी होता है |





               विश्व की प्रमुख पेय फसलें

                                चाय

 चाय एक प्रकार का पेय फसल है  | यह उष्णकटिबंधीय बागानी फसल है  ऐसा माना गया है | कि इसका सर्वप्रथम जन्म चीन में हुआ चाय  कि कृषि मानसूनी जलवायु वाले देशों में सबसे अधिक की जाती है |





                    चाय का उत्पादक क्षेत्र

 चीन -  चाय की कृषि चीन में ही शुरू हुई और आज भी सबसे अधिक क्षेत्र में चाय की कृषि  चीन में ही उपजाई जाती है | चीन की चाय निम्न स्तर की होती है | एवं उत्पादन घरेलू खपत के लिए होता है |

भारत -  भारत में असम में ब्रह्मपुत्र एवं सुरमा घाटी तथा सदिया क्षेत्र पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग एवं जलपाईगुड़ी बिहार में पूर्णिया झारखंड में रांची उत्तराखंड में देहरादून , अल्मोड़ा में गढ़वाल , हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा घाटी एवं दक्षिण भारत में नीलगिरी पहाड़ी क्षेत्र भारत के प्रमुख चाय उत्पादक क्षेत्र है 

 भारत श्रीलंका इंडोनेशिया बांग्लादेश जापान  कीनिया एवं ताइवान चाय की प्रमुख निर्यातक देश है | भारत अपनी कुल उत्पादन का लगभग एक चौथाई चाय निर्यात करता है | यह निर्यात मुख्यतः कोलकाता बंदरगाह से किया जाता है |

   चाय  के उत्पादन के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां

चाय  की खेती के लिए तापमान 21°C से 29°C होना चाहिए |

 इसके लिए वर्षा 150 से 200 सेमी होनी चाहिए ( जलवायु ठंडी एवं आद्र होनी चाहिए ) |

 इसके लिए मिट्टी गहरी एवं उपजाऊ दोमट मिट्टी होनी चाहिए | जिसमें फास्फोरस एवं लोहा की उपलब्धता पर्याप्त मात्रा में हो |

 इसकी पत्तियां साल में कई बार तोड़ी जाती है | जैसे चीन में 3 बार एवं भारत में 16 बार तोड़ जाती है | जिसके लिए बड़ी मात्रा में सस्ते श्रमिक की आवश्यकता होती है |

 इसके लिए  मंद ढालू भूमि होनी चाहिए |

                     चाय दो प्रकार की होती है |

                            काली चाय

 काली चाय टैनिक अम्ल की मात्रा उच्च होती है | इसका उत्पादन श्रीलंका इंडोनेशिया भारत आदि देशों में होता है |

                       हरी चाय ( ग्रीन टी )

 यह चाय काली चाय की तुलना में उत्तम होती है | और इसका उत्पादन मुख्य रूप से जापान एवं चीन में किया जाता है | चाय की प्रति व्यक्ति सर्वाधिक खपत ब्रिटेन एवं रूस में है |

                     कहवा ( कॉफी )

 कहवा की कृषि एवं व्यापार पहली बार अरब प्रायद्वीप  में किया गया एवं वहां से इसे ब्राजील लाया गया | विश्व में ब्राजील सबसे अधिक कहवा उत्पादन करता है | इसके बाद वियतनाम और तीसरे स्थान पर इंडोनेशिया का स्थान आता है |





       कहवा के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां

 कहवा उष्ण  जलवायु की फसल है  जो समुद्र तल से 500 से 1500 मीटर की ऊंचाई पर उगाई जाती है |

 कहवा उत्पादन के लिए तापमान 15°C से 25°C होना चाहिए |

  इसके लिए वर्षा 115 से 200 सेमी वर्षा समान रूप से वितरित होनी चाहिए |

 कहवा के लिए मिट्टी उपजाऊ जिसमें लोहा , नाइट्रोजन एवं ह्यूमस   पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए | वनीय  मिट्टी विशेष रूप से उपयुक्त मानी जाती है |

  तेज हवा एवं सीधी धूप  कहवा फसल के लिए हानिकारक होती है | अतः इसके पौधों को छाया में उगाया जाता है | छाया के लिए मकई  केला  आदि की फसलें उसके बगल में लगा दी जाती है |

  पाला  कहवा की फसल के लिए हानिकारक होता है  | इसके लिए चाय की अपेक्षा अधिक उपजाऊ एवं ढालू भूमि होनी चाहिए | ताकि जल का प्रवाह सुगमता से हो सके |

                   विश्व की नगदी फसलें

 वैसी फसलें जिसको बेचकर  जल्द नगद प्राप्त किया जा सकता है | नकदी फसल कहलाता है |


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                        प्रमुख नकदी फसल

                                 रबड़

 रबड़ एक उष्णकटिबंधीय पौधा है इसका जन्म स्थान अमेजन नदी की घाटी है |




     रबड़ उत्पादन के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां

 रबड़ उत्पादन के लिए तापमान लगभग 27°C से 21°C से कम तापमान हानिकारक होता है |

 इसके उत्पादन के लिए 200 सेमी  से अधिक वर्षा होनी चाहिए लेकिन  सुवितरित होनी चाहिए |

                        उत्पादक क्षेत्र

 बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अमेजन बेसिन एवं जायरे बेसिन मिलकर विश्व का 99% प्राकृतिक रबड़ का उत्पादन करते थे | लेकिन वर्ष 1950 तक इसका योगदान घटकर मात्र 2% हो गया वर्तमान समय में विश्व के कुल उत्पादन का 90% भाग दक्षिण पूर्वी एशिया से प्राप्त होता है |  रबड़ की कृषि अधिकतर तटीय मैदानों एवं पठारो के ढालों पर की जाती है |

 दक्षिण पूर्वी एशिया में थाईलैंड इंडोनेशिया एवं मलेशिया रबड़ के प्रमुख उत्पादक देश है |

                              गन्ना

 गन्ना उष्ण  एवं उपोष्ण जलवायु की फसल  विश्व के कुल चीनी उत्पादन का दो तिहाई गन्ने से प्राप्त होता है |





           गन्ने के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां

   गन्ना उत्पादन के लिए तापमान 21°C से 27°C के बीच होनी चाहिए |

 इसके लिए वर्षा 150 सेमी होनी चाहिए |

 जलवायु पर्याप्त धूप काटने के समय शुष्क मौसम |

 मिट्टी उपजाऊ दोमट या हल्की चिकनी मिट्टी होनी चाहिए जिसमें जल बहाव का समुचित प्रबंध हो एवं जलोढ़ मिट्टी में गन्ने की अच्छी फसल होती है | 

                         उत्पादक क्षेत्र

 भारत में गन्ने की कृषि मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश तमिलनाडु कर्नाटक  महाराष्ट्र आंध्र प्रदेश बिहार आदि राज्यों में की जाती है | भारत गन्ने का प्रमुख उत्पादक होने के बावजूद भारत में प्रति हेक्टेयर गन्ने की उपज काफी कम है | यहां के गन्ने में  सुक्रोज की मात्रा भी काफी कम होती है | विश्व में गन्ना उत्पादन में प्रथम ब्राजील द्वितीय भारत  तथा तृतीय चीन है |

 गन्ने का विश्व व्यापार नहीं होता है | बल्कि इससे चीनी तैयार करके उसका व्यापार किया जाता है |   चीनी निर्यात करने वाले देशों में सबसे प्रथम स्थान पर  क्यूबा है जिसके समस्त निर्यात व्यापार का 80% भाग  चीनी ही है |

                               तंबाकू

 तंबाकू उष्ण  एवं उपोष्ण जलवायु की फसल है | इसका जन्म स्थान संयुक्त राज्य अमेरिका माना जाता है |





    तंबाकू उत्पादन के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियाँ 

 तंबाकू उत्पादन के लिए तापमान 18°C से 27°C के बीच होनी चाहिए |

 इसके लिए वर्षा 50 से 100  सेंटीमीटर होनी चाहिए |

 तंबाकू उत्पादन के लिए खनिज एवं जीवाश्म से युक्त दोमट मिट्टी उपयुक्त मानी जाती है |

 तंबाकू उत्पादन में प्रथम स्थान पर चीन द्वितीय स्थान पर भारत एवं तृतीय स्थान पर ब्राजील है |

             विश्व की प्रमुख रेशेदार फसले 

                              कपास

 कपास उष्ण  क्षेत्र की उपज है | लेकिन वर्तमान समय में इसकी सर्वाधिक उपज उपोष्ण क्षेत्र में होता है | इसका जन्म स्थल मिस्त्र  माना जाता है |




 विश्व के सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश चीन है | इसके बावजूद भी चीन कपास का निर्यात नहीं करता है | कपास का सबसे बड़ा निर्यातक देश संयुक्त राज्य अमेरिका है | विश्व में कपास के प्रथम उत्पादक देश चीन एवं द्वितीय भारत एवं तृतीय स्थान पर अमेरिका |

   कपास उत्पादन के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां 

    कपास के उत्पादन के लिए तापमान 21 से 27 के बीच होनी चाहिए |

 इसके लिए वर्षा  50 से 100 सेंटीमीटर होनी चाहिए |

   कपास उत्पादन के लिए जलवायु पर्याप्त धूप ताकी रेशे चमकदार एवं मजबूत बन सके |

    कपास उत्पादन के लिए मिट्टी हालकी एवं उपजाऊ मिट्टी होनी चाहिए | जिसमें चुने का पर्याप्त मात्रा उपस्थित होना चाहिए | काली मिट्टी कपास उत्पादन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है |

                                जूट

जुट उष्ण एवं आर्द्र  जलवायु की फसल है | जिसकी कृषि में दक्षिणी एशिया को एकाधिकार प्राप्त है |

    इसका उत्पादन भारत ( पश्चिम बंगाल बिहार असम ओडिशा एवं उत्तर प्रदेश है )  बांग्लादेश एवं चीन मिलकर  विश्व का 95% से अधिक जूट का उत्पादन करता है |

 विश्व मे जूट का प्रथम उत्पादक देश भारत द्वितीय बांग्लादेश एवं तृतीय चीन है |  विश्व में जूट  का सबसे बड़ा निर्यातक देश बांग्लादेश है |





   जूट उत्पादन के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियाँ 

 जूट उत्पादन के लिए तापमान 25 डिग्री से अधिक होनी चाहिए |

 जूट उत्पादन के लिए वर्षा 170 सेमी से अधिक होनी चाहिए |

जुट उत्पादन के लिए मिट्टी नवीन जलोढ़ एवं डेल्टाई  उपयुक्त मानी जाती है |

              विश्व की प्रमुख तिलहन फसलें

                            ताड़ - तेल

       ताड़ - तेल  के कृषि के लिए वे सभी  भौगोलिक परिस्थितियां आवश्यक होती है | जो नारियल की कृषि के लिए आवश्यक है ताड़ - तेल  उत्पत्ति स्थल नाइजीरिया को माना जाता है |  लेकिन हाल के वर्षों तक  नाइजीरिया ताड़ - तेल  का सबसे बड़ा उत्पादक था परंतु वर्तमान समय में यह स्थान इंडोनेशिया को प्राप्त है |





 विश्व में ताड़ - तेल का  प्रथम उत्पादक देश इंडोनेशिया द्वितीय मलेशिया तृतीय  नाइजीरिया है |

                           मूँगफली

मूँगफली  उष्ण एवं  उपोष्ण कटिबंध की फसल है | इसका जन्म स्थल  ब्राजील माना जाता है | इसी कृषि  मुख्य रूप से  भारत चीन एवं नाइजीरिया में की जाती है |





             विश्व में मूंगफली का सबसे बड़ा उत्पादक देश चीन द्वितीय भारत एवं तृतीय अमेरिका है |

                          सोयाबीन 

 सोयाबीन की कृषि उपोष्ण जलवायु से लेकर शीतोष्ण कटिबंधीय जलवायु में की जाती है |




 विश्व में  सोयाबीन का प्रथम उत्पादक देश अमेरिका द्वितीय ब्राज़ील एवं तृतीय अर्जेंटीना है |

                               अलसी

 अलसी  फ्लैक्स के पौधे से प्राप्त किया जाता है | उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में  फ्लैक्स  की कृषि बीज के लिए की जाती है | जिससे तेल निकाला जाता है | जब की शीत शीतोष्ण जलवायु में फ्लैक्स की  कृषि रेशा प्राप्ति के लिए की जाती है |





 विश्व में अलसी का प्रथम उत्पादक देश कनाडा द्वितीय चीन एवं तृतीय  रूस है |

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                 विश्व की अन्य प्रमुख फसलें

                               कोको 

        कोको एक प्रकार का उष्णकटिबंधीय पौधा है |  इसकी कृषि  विषुवत रेखा के दोनों ओर 20 डिग्री अक्षांश के बीच की जाती है |




           इसकी खेती के लिए औसत तापमान 27 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए तथा वर्षा 200 सेमी से अधिक होनी चाहिए | कोको उत्पादन के लिए मिट्टी गहरी एवं उपजाऊ होनी चाहिए जिसमें लोहा एवं पोटाश पर्याप्त मात्रा में उपस्थित हो |

                         चुकंदर

 चुकंदर शीतोष्ण जलवायु की फसल है | एवं इसकी कृषि मुख्य रूप से यूरोप में की जाती है |




 चुकंदर की खेती के लिए औसत तापमान 16°C से 24°C  के बीच होनी चाहिए | इसकी खेती के लिए नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों की अधिक मात्रा उपस्थित होनी चाहिए |

 चुकंदर से चीनी भी उत्पादन किया जा सकता है | चुकंदर से उत्पन्न चीनी की लागत  गन्ना से प्राप्त चीनी की अपेक्षा अधिक होती है |

     चुकंदर उत्पादन में  रूस प्रथम स्थान पर तथा द्वितीय स्थान पर  फ्रांस एवं तृतीय स्थान पर अमेरिका है |

                            नारियल

 नारियल की खेती के लिए तापमान उच्च ( 25 डिग्री सेल्सियस ) अधिक वर्षा ( 200 सेमी )  तथा अधिक आर्द्रता की आवश्यकता होती है | नारियल की  कृषि के लिए समुद्री जल वायु उत्तम मानी जाती है |  इंडोनेशिया , फिलीपीन्स , भारत , फिजी , श्रीलंका ,  मलेशिया एवं मोजाम्बिक नारियल के प्रमुख उत्पादक देश है |





 नारियल उत्पादन में प्रथम स्थान पर इंडोनेशिया द्वितीय स्थान पर फिलीपीन्स  एवं तृतीय स्थान पर भारत है |

                            रेशम

 रेशम एक प्रकार की  कीड़े से प्राप्त किया जाता है | जिसको जीवित रहने के लिए कम से कम 16 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है | यही कारण है कि इसका उत्पादन मुख्य रूप से उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में किया जाता है | रेशम की उत्पत्ति सर्वप्रथम चीन से हुई है | विश्व के कुल रेशम उत्पादन का 80% से अधिक भाग पूर्वी एवं दक्षिण पूर्वी एशिया से प्राप्त होता है | जापान चीन कोरिया एवं इटली कच्चे रेशम के महत्वपूर्ण निर्यातक है |जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका भारत फ्रांस जर्मनी आदि देश कच्चे रेशम के आयातक है |




 रेशम उत्पादन में प्रथम स्थान पर चीन द्वितीय स्थान पर भारत एवं तृतीय स्थान पर उज्बेकिस्तान है |


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रविवार, 4 जुलाई 2021

मृदा किसे कहते है , मृदा का महत्त्व क्या है ,मृदा कितने प्रकार के होते है ,

 

              मृदा क्या है





        वैसे प्राकृतिक तत्व जो खनिज एवं जैविक पदार्थों से निर्मित होती  है | मृदा कहलाती है | अर्थात चट्टानों के विघटन के फलस्वरूप तथा अपसरण से निर्मित असंगठित सूक्ष्म पदार्थ  जिसमें ह्यूमस  के रूप में कार्बनिक पदार्थ उपस्थित रहते हैं   | सामूहिक रुप से  मृदा कहलाती है |

                 मृदा का महत्व

 मृदा जीवमंडल में ऊर्जा तथा पोषक तत्वों के स्थानांतरण के माध्यम के रूप में कार्य करती है | तथा पदार्थों के जैविक संघटको के द्वारा गमन , चक्रण एवं पुनर्चक्रण में सहायता करती है | इसके अलावा मृदा विभिन्न प्रजातियों के पौधों तथा जंतुओं के लिए आदर्श पर्यावरणीय दशाएं एवं निवास प्रदान करते हैं | मृदा में उपस्थित विभिन्न प्रकार के खनिज एवं जैविक तत्व पौधों के लिए पोषण उपलब्ध कराती है | इससे मानव समाज के लिए खाद्यान्न की आवश्यकता पूरी होती है |


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                       मृदा के अवयव

 मृदा ठोस द्रव एवं गैस तीनों प्रकार के तत्वों का मिश्रण है | पृथ्वी के शैलो  से खनिज तथा जीवाणु से जैविक पदार्थ प्राप्त होता है | खनिज पदार्थ में मृदा 38% से 40% तक पाया जाता है | मृदा का ठोस भाग मृदा आयतन का लगभग 50% होता है | तथा शेष आधा भाग  मृदा घोल एवं हवा होती है | जो आपस में घटते बढ़ते रहता है | क्योंकि मृदा का जल बह जाता है | तथा पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है |  

                    मृदा निर्माण के कारक

 किसी भी क्षेत्र में  मृदाओ  के निर्माण की प्रक्रियाए उसके गुण तथा विशेषताएं मुख्य रूप से पांच कारको द्वारा निर्धारित नियंत्रित एवं प्रभावित होती है  | जो निम्नलिखित है |

                 मूल पदार्थ ( आधार शैल )

 किसी भी क्षेत्र में मृदा का निर्माण आधार शैल के अक्षय द्वारा होता   है | इस तरह मिर्जा के प्राथमिक एवं द्वितीयक खनिज आधार शैलो  से ही प्राप्त होता है |

 जैसे ज्वालामुखी चट्टान के अपक्षयन  से काली मृदा का निर्माण होता है | 


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                   स्थलाकृति (उच्चावच)

 चट्टानों के विघटन तथा  वियोजन से उत्पन्न असंगठित मलबे को मृदा के रूप धारण करने के लिए आवश्यक है | कि  वह एक स्थान पर जमा रह सके जहां  ढाल तीव्र होती है | वहां मलवा जब नहीं पाता इसलिए मृदा की मोटाई काफी कम होती है | जबकि समतल भूमि में मलबे के जमा होने के कारण उसकी मोटाई अधिक होती है |

                                समय

 प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों की तरह   मृदाएं भी समय के साथ विकसित होती है | तथा इसका संगठन संरचना तथा आंतरिक विशेषताएं निरंतर परिवर्तित होती रहती है | मृदा निर्माण की सभी क्रियाएं समय के अनुसार होती है  | मृदा के पूर्ण विकसित होने तथा नष्ट होने एवं फिर नवीन मृदा निर्माण होने का चक्र  भी समय के अनुसार होता है | सभी दशाओं के अनुकूल होने पर मृदा परिच्छेदिका का विकास होने में लगभग 200 वर्ष लग जाता है |

                              जलवायु

 जलवायु मृदा में स्थित नमी की मात्रा तथा तापमान को निर्धारित एवं प्रभावित करती  हैं  | इससे अपवहन , अपक्षालन , विनिक्षेपण , हियूमसिकरण  तथा खनिजीकरण की प्रक्रिया संपन्न होती है | जो  मृदा के विभिन्न  संस्तरो  के निर्माण में सहायक होती है |

                         जैविक तत्व 

 पौधे एवं जीव जंतु मृदा निर्माण को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करता है | मृदा के लिए प्रभावकारी जीव व पौधों की जीवन प्रक्रिया महत्वपूर्ण होती है | जिसमें विशेष रूप से मृदा से सटे हुए छोटे पौधे एवं जीव सम्मिलित वनस्पति आवरण   मृदा के अपरदन को भी रोकता है | साथ ही साथ वनस्पति के सड़ने  गलने के उपरांत जैविक तत्व की वृद्धि के रूप में योगदान करता है |

                मृदा निर्माण की प्रक्रिया

                       मृदा जनिक  प्रक्रिया

 चट्टानों तथा खनिज के  ऋतुक्षरण  के  दौरान ऋतुक्षरित  खनिज  अंश और मृत एवं जीवित जीवांश पदार्थ का विषमांग  मिश्रण बनता है | जो मृदा निर्माण हेतु कच्चा माल होता है |

                              विच्छेदन

 ऋतुक्षरण के उपरांत निर्मित अपक्षयित  पदार्थ का  पुनः विच्छेदन  होता है तथा SiO2 , Fe2O3 , Al2O3  आंशिक रूप से परिवर्तित होकर मृदा कोलाइडी अंश बनाता  है | इस प्रकार  संकीर्ण खनिज तरल यौगिकों विक्षेदित  होता है |

                               संश्लेषण

विच्छेदन के दौरान बने तरल पदार्थ  संयुक्त होकर  मृतिका Fe , Al  के हाइड्रस ऑक्साइड , Ca , Mg , K , Na आदि के कार्बोनेट के ऑक्साइडो आदि का निर्माण करते हैं |

                           ह्यूमसीकरण

 मिट्टी की सतह पर एकत्रित अविघटित कार्बनिक अवशेष अपघटित होकर ह्यूमस का निर्माण करता है |

                     अपक्षालन या अपवहन

 वैसी प्रक्रिया जिसने मृदा के ऊपरी संस्तरों  की  अवयव  प्रवाहित जल के साथ निचले संस्तरों  में पहुंच जाता है | अपक्षालन या अपवहन कहलाता है | नम क्षेत्रों वाली  मृदाओ  में SiO2  की पर्याप्त मात्रा निचले संस्तर  में वह जाती है | जिसके फलस्वरूप लैटेराइट  मृदाओ  का निर्माण होता है | इसलिए ऊपरी संस्तर अवक्षालन संस्तर  कहलाता है |

                              विनिक्षेपण  

ऊपरी संस्तर से  जल द्वारा बहाकर  लाए गए पदार्थों के नीचे  संस्तरों में जमा होने की प्रक्रिया  विनिक्षेपन  कहलाता है |

                              समांगीकरण

  उपरोक्त  प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप  मृदाओ में   पृथक पृथक संस्तरो  के अवयव  भू रासायनिक क्रियाओं व  पादप तथा जंतुओं द्वारा पुनः आंशिक रूप से  मिश्रित होते हैं | तथा कभी संस्तरो  में स्पष्ट विभेदीकरण  अत्यधिक कठिन हो जाता है |

                           पोडजॉलाइजेशन

 यह  प्रक्रिया शीत एवं शीतोष्ण जलवायु वाले उन प्रदेशों में होता है जहां अत्याधिक वर्षा होते हैं  | अत्याधिक  वर्षा के कारण ह्यूमस  तथा सेस्कवी  ऑक्साइड ऊपरी संस्तरों  से अवक्षालन  द्वारा निचले संस्तरों  में चले जाते हैं | जिसके परिणामस्वरूप A संस्तर में क्ले , सैस्कवी  ऑक्साइड  तथा ह्यूमस  की कमी हो जाती है |  तथा सिलिका   सतह पर बना रहता है साथ ही  B संस्तर  में इन्हीं पदार्थों का अधिकता  हो जाती  है | इस  प्रक्रिया द्वारा निर्मित मृदाओं को पोडजॉल  मृदा कहते हैं |

                             लैटेराइजेशन

 इस प्रक्रिया मे पोडजॉलाइजेशन  से  विपरीत सिलिका तथा क्षारीय पदार्थों का निक्षालन  होता है | ये  मृदा अम्लीय होता है जिसे लैटेराइट  मृदा कहा जाता है |

                              कैल्सिफिकेशन 

 इस प्रक्रिया में मृदा में कैल्शियम लवणों का संचयन होता है | यह संचयन निक्षालन  में रुकावट कम वर्षा तथा क्षारीय पदार्थों की अधिकता के कारण होता है | 

                              सैलिनाइजेशन 

 यह प्रक्रिया शुष्क  जलवायु वाले प्रदेशों में अधिक होता है | इसमें अधिक तापक्रम कम वर्षा मृदा के अंदर अधिक लवण युक्त जल का पाया जाना जल तल का ऊंचा होना अधिक सहायक सिद्ध होता है | ऐसी  मृदाएं लवणों की अधिकता के कारण खेती के लिए बेकार हो जाती है | यह लवणीय मृदा कहलाती है | 

                            एल्केलाईजेशन

 यह प्रक्रिया सैलिनाइजेशन के समान दशाओ में होता है  अंतर सिर्फ इतना है | कि इसमें सोडियम लवणों का संचयन होता है अधिक पानी की उपस्थिति में जब कैल्शियम लवण निक्षालित  हो जाते हैं  तब लवणीय मृदाये  भी क्षारीय हो जाती है  | जो खेती के लिए  उपयोगी नहीं होती है | 

                               ग्लेजेशन 

 जलमग्न व अपचयित  अवस्थाओं में यह प्रक्रिया होती है | मृदा में भूरे रंग के संस्तरण  में  Ca ,Mg , Fe , व  Mn के अविलेय लवणों का जमाव होता है | 

                        मृदा परिच्छेदिका

 भूतल तथा उसके नीचे उपस्थित आधार शैल के ऊपरी भाग के मध्य स्थित समस्त मृदा  मंडल के लंबवत स्तरो को सामूहिक रूप से मृदा परिच्छेदिका कहा जाता है | वास्तव में यह मृदा संघटको के लंबवत वितरण का प्रतिनिधित्व करती है | सामान्यतः मृदा परिच्छेदिका में ऊपर से नीचे जाने पर जैविक पदार्थों के साथ साथ ही  वायु की मात्रा भी कम होती जाती है |

                          मृदा के प्रकार

 सर्व प्रथम वर्ष 1938 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग के वैज्ञानिक सी एफ मारबूत ने विश्व स्तर पर  मृदा को तीन भागों में विभक्त किया गया है | 

        (1) क्षेत्रीय मृदा या कटिबंधीय  मृदा

        (2)  अंत: क्षेत्रीय  मृदा

        (3) अक्षेत्रीय   मृदा 

            (1) क्षेत्रीय मृदा या कटिबंधीय  मृदा

 विश्व की प्रमुख मृदा वर्ग  क्षेत्रीय  मृदाओं के अंतर्गत आता है | इसका विस्तार सर्वाधिक क्षेत्रों में देखने को मिलता है | ये  मृदाएँ जलवायु एवं वनस्पति के दीर्घकालीन प्रभाव से पूर्ण विकसित होती है | क्योंकि इस प्रकार की मृदाओं का वितरण जलवायु व वनस्पति प्रदेशों के अनुसार मिलता है | इसलिए इसे कटिबंधीय मृदा भी कहा जाता है |

              कटिबंधीय मृदा दो प्रकार की होती है

 (1) पेडाल्फर

 (2) पेडोकल 

                         (1) पेडाल्फर

       पेडाल्फर  मृदा में लोहा एवं एलुमिनियम की मात्रा अधिक होती है | यह मृदा मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में अधिक पाई जाती है |  जहां अधिक वर्षा के कारण मृदा में अपक्षालन क्रिया तेजी से होती है |

 इस मृदा को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया गया है |

                         पोडजॉल  मृदा

 यह मृदा उत्तरी रूस उत्तरी यूरोप एवं उतरी कनाडा के टैगा जलवायु वाले क्षेत्रों में मुख्य रूप से पाई जाती है |

 इस मिट्टी की विशेषताएं -   मृदा की सतह के ऊपर सुखी तथा सड़ी गली वनस्पतियों की एक परत होती है | इसके नीचे  मृदा की पतली परत होती है | जीवाणु क्रिया कम होने के कारण ही ह्यूमस  कच्चा रहता है  | एवं जैविक पदार्थों के  सड़ने  गलने के  कारण हियूमिक  अम्ल का निर्माण होता है | जिसके कारण मृदा अम्लीय हो जाती हैं | उस मिटटी में अपक्षालन  क्रिया तीव्र गति से होती है |

 इस मिट्टी में गेहूं एवं सूरजमुखी जैसे फसलों की कृषि के प्रयास किए जा रहे हैं | अपक्षालन की अभिक्रिया एवं अम्लीय होने के कारण यह  मिट्टी काफी कम उपजाऊ होती है |

                             लाल  मृदा

 यह मिट्टी उष्ण  एवं उपोष्ण कटिबंधो के आर्द्र भागों में विस्तृत रूप से पाई जाती है |

 इस मिट्टी की विशेषताएं लोहे के ऑक्साइड के कारण इस मिट्टी का रंग लाल होता है | जीवाणु की क्रिया काफी तीव्र गति से होने के कारण जीवाणु द्वारा ही ह्यूमस  का उपयोग कर लिया जाता है | जिसके फलस्वरूप इस मिट्टी में ही ह्यूमस  की कमी आ जाती है |  अधिक वर्षा के कारण अपक्षालन  की क्रिया भी तीव्र  गति से होती है | जिसके कारण इसकी मिट्टी में उर्वरा शक्ति की मात्रा कम होती है |

 इस मिट्टी में परंपरागत रूप से मोटे अनाजों की कृषि की जाती है | वर्तमान समय में इस मिट्टी में रबड़ एवं कहवा की बागवानी कृषि की जा रही है | 

                             लैटेराइट मिट्टी

 यह मिट्टी अनूपजाऊ होती है |   तथा  यह आर्द एवं उष्ण जलवायु जैसी विषुवत रेखीय जलवायु  सवाना एवं मानसूनी जलवायु के आर्द्र भागो में पाई जाती हैं |

 इस  मिट्टी की विशेषताएं  अपक्षालन  तीव्र प्रक्रिया के कारण इस मिट्टी में सिलिका एवं पोषक तत्वों का अभाव होता है | अधिक वर्षा एवं गर्मी के कारण जीवाणु क्रिया तेजी से होती है | एवं जीवाणु द्वारा ह्यूमस का उपयोग कर लिया जाता है | जिसके फलस्वरूप इसमें उर्वरा शक्ति की मात्रा काफी कम हो जाती है |

 इस मिट्टी में मोटे अनाजों दलहन तिलहन एवं बागवानी फसलों की कृषि की जाती है | यह मिट्टी जंगली वृक्षों  घास एवं झाड़ियों के लिए उपयुक्त है |

                             काली मिट्टी

 यह मिट्टी काले रंग की तथा उपजाऊ होती है | तथा यह समशीतोष्ण कटिबंध  की महादेशीय जलवायु के क्षेत्र में पाई जाती है | रूस के स्टेपी क्षेत्र  एवं उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी  क्षेत्र में यह मिट्टी विस्तृत रूप में पाई जाती है | इसके अलावा अर्जेंटीना के पंपास दक्षिण अफ्रीका के बेल्ड एवं ऑस्ट्रेलिया के डाउन्स के मैदानों में भी या  मिट्टी पाई जाती है | 

 इस मिट्टी की विशेषताएं हल्की वर्षा के कारण इस मिट्टी में अपक्षालन की क्रिया नहीं होती है |  घास के सड़ने गलने  के कारण इस मिट्टी में कैल्शियम की प्रचुरता होती है |  इस मिट्टी में ह्यूमस  पर्याप्त मात्रा में रहती है  | जिसके कारण यह मिट्टी उपजाऊ होती है  | इस मिट्टी को रोटी की टोकरी कहा जाता है | 

 इस मिट्टी में मुख्य रूप से गेहूं , जौ , जई , जैसे फसलों की कृषि की जाती है | 

                       (2) पेडोकल  मृदा

     पेडोकल मृदाओं  में कैल्शियम की मात्रा अधिक होती है | यह  मृदाएं शुष्क एवं  अर्ध शुष्क देशों में पाई जाती है | क्षेत्रों में  वाष्प  उत्सर्जन की क्रिया वर्षण की तुलना में कुछ अधिक होती है | जिसके फलस्वरूप केशिका कर्षण  क्रिया के द्वारा कैल्शियम ऊपर चला जाता है |

            (2)  अंत: क्षेत्रीय  मृदा 

    अंत: क्षेत्रीय  मृदा  को निम्न भागों में बांटा जा सकता है

                        लवणीय मृदा

 इस प्रकार की मिट्टी उन क्षेत्रों में मिलती है | जहां वाष्पीकरण की क्रिया अधिक होती है | एवं जल निकासी का उचित सुविधा का अभाव होता है | जहां ग्रीष्म ऋतु काफी गर्म एवं शुष्क होती है  |    वहां लवणीय मृदा पाई जाती है | 

                            क्षारीय मृदा

 यह मृदा लवणीय मृदा वाले क्षेत्रों में है |  लेकिन कुछ अधिक वर्षा वाले भागों में मिलती है |

 इस मिट्टी में सामान्यतः कोई मुख्य फसल की कृषि संभव नहीं हो पाती है | हालांकि कुछ जगहों पर नारियल तथा खजूर को बागानी कृषि के तहत उगाया जाता है | 

                   (3) अक्षेत्रीय   मृदा 

        अक्षेत्रीय   मृदा  को निम्न भागों में बांटा गया है

                        जलोढ़ मिट्टी

 विश्व की सभी बड़ी नदियों की घाटियों में यह मिट्टी पाई जाती है | इसका उत्तम उदाहरण है , नील नदी की घाटी गंगा ब्रह्मपुत्र के मैदानी भाग इत्यादि |  यह मिट्टी आवश्यक खनिज तत्वों की दृष्टि से धनी होती है | मृदा की गहराई भी अधिक होती है | यह विश्व की सर्वाधिक उपजाऊ मृदाओ में से एक है |

 चावल एवं जूट की कृषि के लिए  यह मिट्टी विशेष रूप से उपयोगी होती है | इसके अलावा गेहूं गन्ना कपास  आदि फसलो की कृषि भी की जाती है |

                            लोएस मिट्टी

 इस मिट्टी का सबसे विस्तृत क्षेत्र उत्तर पश्चिम  चीन में है | जहां  मध्य एशिया एवं मुख्य रूप से गोबी मरुस्थल से  वायु द्वारा लाए गए धूल कणों के द्वारा इसका निर्माण हुआ है  |

                         पर्वतीय मृदा

 यह मिट्टी विश्व के अधिकांश पर्वतों की  ढालो एवं पर्वतीय प्रदेशों में पाई जाती है | 

 अनुकूल ढाल वाले क्षेत्रों में इस मिट्टी में बागानी फसलों की कृषि की जाती है | चाय मसाला रसदार फल कहवा और रबड़ आदि इस मिट्टी में उपजाए जाते हैं  |


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वायुमंडल किसे कहते हैं वायुमंडल के बारे में जानकारी दें


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चट्टान किसे कहते है आग्नेय चट्टान ,अवसादी चट्टान आदि के बारे में वर्णन करे https://kindui.blogspot.com/2021/06/blog-post_26.html


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शनिवार, 3 जुलाई 2021

वायुमंडल किसे कहते है,आयन मंडल किसे कहते है , क्षोभ मंडल किसे कहते है ,सम मंडल किसे कहते है, समताप मंडल किसे कहते है , विषम मंडल किसे कहते है , मध्य मंडल किसे कहते है

 

     वायुमंडल किसे कहते है 





 वायुमंडल एक प्रकार का गैसीय  आवरण है जो पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त है |  इसमें कई प्रकार के गैसों का मिश्रण है | जो पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के कारण इसके चारों ओर टिका हुआ है | वायुमंडल की वजह से ही पृथ्वी पर जीवन संभव हो पाया है | इस प्रकार वायुमंडल संपूर्ण प्रकृति के अस्तित्व के साथ साथ है | मानव जीवन के अस्तित्व के लिए भी अनिवार्य तत्व है | वायुमंडल के कुल द्रव्यमान का 99% पृथ्वी की सतह से 32 किमी की ऊंचाई तक स्थित है | 

                   वायुमंडल का संघटन

 वायुमंडल गैसों जलवाष्प एवं धुलकणों से मिलकर बना है 

                               गैस

 वायुमंडल में कई प्रकार के गैसों का मिश्रण है |  गैसों का अनुपात निश्चित होता है |  परंतु ऊंचाई के साथ साथ  इन गैसों का अनुपात में अंतर भी दिखाई देता है | वायुमंडल के निचले स्तर में भारी गैस जैसे कार्बन डाइऑक्साइड,  ऑक्सीजन , नाइट्रोजन आदि तथा ऊपरी स्तर में हल्की गैस जैसे हिलियम ,  नियॉन ,  क्रिप्टन आदि पाई जाती है |  ऑक्सीजन की मात्रा 120 किमी की ऊंचाई पर नगन हो जाती है | इसी प्रकार कार्बन डाइऑक्साइड पृथ्वी की सतह से 90 किमी की ऊंचाई तक ही  पाई जाती है |

 कार्बन डाइऑक्साइड गैस सौर विकिरण के लिए प्रवेश्य है |  लेकिन पार्थिव विकिरण के लिए  अप्रवेश्य है | जिसके कारण यह ग्रीन हाउस प्रभाव के के लिए जिम्मेदार हैं | और वर्तमान समय में जीवाश्म ईंधन के दहन के कारण इसकी मात्रा बढ़ रही है  | ओजोन 10 से 50 किमी के बीच पाई जाती है | जो सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर  पृथ्वी पर आने से रोकती है  |  


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                              जलवाष्प 

 जलवाष्प वायुमंडल का सर्वाधिक परिवर्तनशील तत्व है | जो धरातल के निकट इसकी मात्रा 1% से 4% तक पाई जाती है | पृथ्वी तल पर जलिए क्षेत्रों , मिट्टियो तथा वनस्पतियों के  वाष्पीकरण के द्वारा वायुमंडल में  जलवाष्प पहुंचती है | जलवाष्प की मात्रा तापमान तथा ऊंचाई से भी प्रभावित होती है | भूतल से 5 किमी की ऊंचाई तक वायुमंडल में समस्त जलवाष्प  का 90% भाग रहता है |  पृथ्वी तल से ऊपर जाने पर जलवाष्प की मात्रा घटती जाती है | जल वाष्प के कारण ही सभी प्रकार के संघनन तथा वर्षण ,  बादल ,  तुषार , हीम , ओस  आदि का सृजन होता है | 

                             धूलकण

 वायुमंडल में छोटे-छोटे ठोस कणों को रखने की क्षमता होती है | धूल कण प्राया वायुमंडल के निचले भाग में उपस्थित होता है | फिर भी  इसे संवहनीय वायु प्रवाह के द्वारा काफी ऊंचाई तक ले जा सकती है |

 धूल कणों का सबसे अधिक जमाव उपोष्ण और शीतोष्ण  प्रदेशो में शुष्क हवा के कारण   होता है | जो  विषुवत और ध्रुवीय प्रदेशों की तुलना में  अधिक मात्रा में होता है | 

               वायुमंडल का रासायनिक संघटन

 रासायनिक संघटन के दृष्टिकोण से वायुमंडल को दो भागों में बांटा गया है

   ( 1) सममण्डल 

   (2)  विषम मण्डल 

                        ( 1) सममण्डल

 वायुमंडल के इन परतों में उपस्थित गैसों के अनुपात में कोई भी परिवर्तन नहीं होता है | इसलिए इसे  सममण्डल कहा जाता है |

 सममंडल की रचना मुख्य रूप से ऑक्सीजन नाइट्रोजन आर्गन कार्बन डाइऑक्साइड आदि गैसों से हुई है | इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 80 किमी की ऊंचाई तक पाई जाती है |

 तापमान के आधार पर इस मंडल को तीन  उपमंडलों में वर्गीकृत किया गया है  | 

   (1) क्षोभमंडल 

   (2)  समताप मंडल 

    (3)  मध्य मंडल  

                 (2)  विषम मण्डल 

 इस मंडल में गैसीय  संगठन में विषमता पाई जाती है | इसलिए इसे विषम मंडल कहा जाता है |

  सम मंडल से 80 किमी से ऊपर विषम मंडल का विस्तार है | इसमें आयन मंडल तथा ब्रह्मा मंडल को शामिल किया जाता है |

         विषम मंडल को 4 भागों में बांटा जा सकता है

 (1)  पहली परत में नाइट्रोजन गैस का विस्तार है जो 80 से 200 किमी के बीच फैली हुई है |

 (2)  नाइट्रोजन भारत के ऊपर परमाण्विक ऑक्सीजन परत पाई जाती है जो 200 से 1100 किमी के बीच के बीच फैली हुई है |

 ( 3)  तीसरी परत हीलियम परत है जो 1100 से 1700 किमी के बीच  फैली हुई है |

 (4)  ऊपरी परत हाइड्रोजन परत है जिसका विस्तार 1700 से  2600 किमी के बीच है |

                        वायुमंडल की संरचना

 वायुमंडल की संरचना को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है  |    

                               क्षोभमंडल 

क्षोभमंडल वायुमंडल की सबसे निचली परत है | जो 8 से 18 किमी तक स्थित है   | क्षोभमंडल  की ऊंचाई विषुवत रेखा पर अधिक और योग्य भागों में कम पाई जाती है  | यह भिन्नता संवहन  के कारण होती है | क्षोभमंडल  की ऊंचाई में ऋतूवत  परिवर्तन होता है  | जाड़े की अपेक्षा गर्मी में इसकी सीमा ऊंची हो जाती है | वायुमंडल में उपस्थित गैसों का 95% क्षोभमंडल में पाया जाता है | धरातल में पाए जाने वाले जीवो का संबंध इसी मंडल से है | शीत ध्रुवो को छोड़कर   क्षोभमंडल    में ऊंचाई के साथ तापमान में कमी आती है  | ऊंचाई के साथ तापमान में प्रति 1 किमी में 6.5 डिग्री सेल्सियस की कमी आती है |

क्षोभमंडल में मौसमी घटनाओं का विशेष महत्व है | कोहरा बादल ओला तुषार आंधी तूफान मेघ गर्जन विद्युत प्रकाश सभी घटनाएं इसी मंडल में घटित होती है | 

                        समतापमंडल 

 समताप मंडल समुद्र तल से 50 किमी की ऊंचाई तक फैला हुआ है | धरातल से लगभग 30 किमी की ऊंचाई पर संक्रमण पेटी पाई जाती है | इस  पेटी  के ऊपर तापमान ऊंचाई के साथ तीव्र गति से ऊपर उठता है  | 

 ग्रीष्म ऋतु में समताप मंडल के तापमान में अक्षांशों के साथ वृद्धि ध्रुव तक बनी रहती है | लेकिन शीत ऋतु में 50°  से 60°  अक्षांश के बीच समताप मंडल सबसे अधिक गर्म रहता है 60° अक्षांश से ध्रुवों की ओर तापमान पुन: घट जाता है | इस मंडल की मोटाई ध्रुवों पर सबसे अधिक होती है | तथा कभी-कभी विषुवत रेखा पर  समताप मंडल बिल्कुल समाप्त हो जाता है | 

 सामान्यत: है यहां पर बादल नहीं पाए जाते हैं लेकिन कभी-कभी जलवाष्प की उपस्थिति के कारण दुर्लभ बादल जैसे मदर ऑफ पर्ल मेघ देखने को मिलती है | बादल  और जलवाष्प के अभाव एवं ऊर्ध्वाधर  पवनो की अनुपस्थिति के कारण यह पवन जेट विमानों की उड़ान हेतु उपयुक्त होती हैं | इस मंडल के निचले भाग अर्थात 20 किमी की ऊंचाई तक तापमान लगभग स्थिर रहता है | लेकिन ऊपरी भाग में 50 किमी की ऊंचाई तक तापमान क्रमश: बढ़ता है |  क्योंकि समताप मंडल में ओजोन परत पाई जाती है | और यह ओजोन परत सूर्य से पृथ्वी की ओर आने वाली हानिकारक पराबैंगनी  किरणों को सोख कर  पृथ्वी पर उपस्थित जीव की रक्षा करती है | समताप मंडल के ऊपर समताप सीमा पाई जाती है | जो समताप मंडल को मध्य मंडल से अलग करती है | 

                            मध्य मंडल

 मध्य मंडल का विस्तार   समताप सीमा से 50 किमी से 80 किमी की ऊंचाई तक पाया जाता है | मध्य मंडल में ऊंचाई के साथ तापमान में कमी आती है | यहां पास न्यूनतम तापमान -90  डिग्री सेल्सियस होती है | तथा कभी-कभी 80 किमी की ऊंचाई पर न्यूनतम तापमान -100 डिग्री सेल्सियस के आसपास पाया जाता है | मध्य मंडल की ऊपरी सीमा जिसके ऊपर जाने पर तापमान में वृद्धि होती है मध्य सीमा कहलाती है | मध्य मंडल में ऊंचाई के साथ-साथ वायुदाब में कमी आती है  | यहां 50 किमी की ऊंचाई पर एक मिलीबार वायुदाब तथा 90 किमी की ऊंचाई पर 0.01 मिलीबार दे पाया जाता है | 

              ताप मण्डल या उष्णमण्डल 

 मध्य सीमा के ऊपर  ( 80 किमी से ऊपर अनिश्चित ऊंचाई तक ) वाला वायुमंडलीय भाग  ताप मण्डल या उष्णमण्डल  कहलाता है | तापमंडल के निचले हिस्से में  ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन पाई जाती है  |  लेकिन 200 किमी की ऊंचाई पर आणविक  ऑक्सीजन की मात्रा आणविक नाइट्रोजन से अधिक हो जाती है | 

 ताप मंडल में ऊंचाई के साथ साथ तीव्र गति में तापमान में वृद्धि होती है |  तथा 350 किमी की   ऊंचाई   पर 1200° K  तापमान पाया जाता है |  इतना ऊंचा तापमान होने के कारण आणविक ऑक्सीजन द्वार 0.2 um  माइक्रोन से छोटे तरंगदैर्ध्य  वाली पराबैगनी किरणों का अवशोषण होता है | साथ ही आने वाली लघु तरंग किरणों को पुनः विकिरण करने में असक्षम होता है | इसकी ऊपरी सीमा तक तापमान बढ़कर 1700° K  हो जाता है | 

                          आयन मंडल

 आयन मंडल में व्याप्त  ऊंच विद्युत चालकता ही रेडियो तरंगों को पृथ्वी की ओर वापस परावर्तित करते हैं | इसका विस्तार 80 से 640 किलोमीटर की ऊंचाई तक है | यहां पर उपस्थित गैस के कारण विद्युत आवेशित होती है | आयन मंडल में उत्तरी ध्रुवीय ज्योति तथा दक्षिणी ध्रुवीय ज्योति देखने को मिलती है | ध्रुवीय ज्योति उच्च अक्षांशीय  तथा उप ध्रुवीय प्रदेशों की एक महत्वपूर्ण घटना है | इसकी उत्पत्ति सूर्य से आने वाली आवेशित कणों की पृथ्वी की ओर आने के कारण चुंबकीय क्षेत्र में 100 किमी ऊंचाई पर होती है |

     ध्रुवीय  ज्योति का सौर गतिविधियों के साथ  व्युत्क्रम  संबंध है | 

              ब्राह्ममण्डल  एवं चुंबकीय मंडल

ब्राह्ममण्डल  एवं चुंबकीय मंडल  का विस्तार अनंत है | और इसकी ऊपरी परत अंतरिक्ष में विलीन हो जाती है | तथा इसकी  वायु बहुत ही विरल है | यहां केवल सौर वायु द्वारा प्राप्त इलेक्ट्रॉन तथा प्रोटॉन के कण पाए जाते हैं | आवेशित कण 3000 से 16000 किमी के बीच  दो पट्टीयों में सकेंद्रित रहते हैं |  इसे वैैन  ऐलन  विकिरण पट्टी कहते हैं |

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शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

वर्षा किसे कहते है ये कितने प्रकार के होते है वर्णन करे

 

            वर्षा क्या है 






 स्वतंत्र हवा के लगातार ऊपर  उठने से  उसमें उपस्थित   जलवाष्प का संघनन होना प्रारंभ हो जाता है |  जब  संघनन क्रिया के दौरान संघनित काणो का आकार  बढ़ जाता है | तब हवा का प्रतिरोध उस कण को रोकने में असफल हो जाता है | जिसके परिणाम स्वरूप  यह कण पृथ्वी   की  सतह पर पानी के रूप में गिरता है | जिसे  वर्षा कहा जाता है | 

                         वर्षा कई प्रकार के होते हैं

                     (1) संवहनीय वर्षा

 जब पृथ्वी की सतह बहुत अधिक गर्म हो जाती है | तब उसके संपर्क में  आने वाली हवा गर्म होकर ऊपर की ओर उठने लगती है | जिससे संवहनीय धाराओं का निर्माण होता है जब ऊंचाई पर पहुंचती है | तो ऊंचाई में पहुंचने  के  बाद  संवहनीय  धाराएं  पूर्णता संतृप्त हो जाती है | जिसके  पश्चात संघनन  से काले  कपासी  वर्षा मेघ का निर्माण होता है | तथा घनघोर वर्षा होती है |  जिसे संवहनीय वर्षा के रूप में जाना जाता है  |

                     (2)  पर्वतीय वर्षा

                जब वायु  से मिश्रित  जलवाष्प  गर्म होकर किसी पर्वत या  पठार की ढलान के साथ ऊपर चढ़ता है | तो यह वायु  रुद्धोष्म प्रक्रिया से ठंडी होने लगते हैं | और धीरे-धीरे  संतृप्त हो जाती है | जिसके परिणाम स्वरूप संघनन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है | संघनन के पश्चात होने वाली इस प्रकार की  वर्षा को पर्वतीय वर्षा कहा जाता है |

 संसार की अधिकांश वर्षा इसी रूप में होती है | ऊंचाई जैसे-जैसे बढ़ती जाती है | वर्षा की मात्रा भी बढ़ती जाती है | इस प्रकार पर्वतीय क्षेत्रों की जो ढाल पवन के सम्मुख होती है | वहां अत्यधिक वर्षा होती है जिसे पवनाभिमुख  ढाल  कहते हैं | इसके विपरीत है ढलान पर जहां पवन ढलान से नीचे उतरती है | सापेक्षिक आद्रता में कमी आती है | जिसके कारण कम वर्षा होती है | इसे वृष्टि छाया प्रदेश कहा जाता है | भारत में इसका सर्वोत्तम उदाहरण पश्चिमी घाट में स्थित महाबलेश्वर है | जहां वर्षा 600 सेंटीमीटर तथा पुणे जहां वर्षा 70  सेमी  होती है | जो कि एक दूसरे से मात्र कुछ  किलोमीटर दूरी पर स्थित है महाबलेश्वर पावनाभिमुखी ढाल पर अवसथित है | जबकि पुणे पवनविमुखी ढाल पर स्थित है  |

                    (3) चक्रवातीय वर्षा 

 चक्रवातो के कारण होने वाले वर्षा को चक्रवाती वर्षा कहा जाता है | इस प्रकार की  वर्षा विशेषकर शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में होती है | जहां गर्म एवं शीतल वायुराशियों  के टकराने के कारण  भीषण  तूफानी दशाएं उत्पन्न होती है | और गर्म वायुराशियों के शीतल वायुराशियों के ऊपर चढ़ जाने की प्रक्रिया में संघनित होना शुरू हो जाती है और वर्षा कराती है | 


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गुरुवार, 1 जुलाई 2021

ग्रहण किसे कहते है

 

        ग्रहण किसे कहते है 







 किसी खगोलीय पिंड का अंधकारमय  हो जाना ग्रहण कहलाता है | 

                ग्रहण दो प्रकार के होता है

               (1)   चंद्रग्रहण         

               ( 2 ) सूर्यग्रहण 

                          (1)   चंद्रग्रहण

 जब पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है  | तो उसे चंद्रग्रहण कहा जाता है |  चंद्र ग्रहण आंशिक या पूर्ण हो सकती है | जब चंद्रमा पूरी तरह से पृथ्वी की छाया से ढक जाती है | तो पूर्ण चंद्रग्रहण होता है | पूर्ण  चंद्रग्रहण एक घंटा 40 मिनट तक का होता है | यह स्थिति तब होती है | जब सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी होती है | और तीनों एक ही रेखा में होती है | इस स्थिति को सिजगी  भी कहा जाता है | यह स्थिति केवल पूर्णिमा को ही बनती है | अत: चंद्रग्रहण पूर्णिमा के दिन ही होता है | जिन क्षेत्रों में पूर्ण चंद्रग्रहण दिखाई देता है | वहां की स्थिति को प्रच्छाया  कहते हैं |  और जिन क्षेत्रों में अर्ध  चंद्रग्रहण दिखाई देता है उन्हें उपछाया  कहते हैं |  

                       ( 2 ) सूर्यग्रहण 

 जब सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आ जाती है |  तो  पृथ्वी के जिन क्षेत्रों में चंद्रमा सूर्य को ढक लेती हैं | वहां सूर्य ग्रहण होता है | सूर्य ग्रहण आंशिक या पूर्ण हो सकती है |पूर्ण सूर्य ग्रहण में सूर्य का कोरोना भाग दिखाई  देता है  | सूर्य ग्रहण   वर्ष में न्यूनतम 2 तथा अधिकतम 5  हो सकती है  | सूर्य ग्रहण के दौरान अंधकारमय काल की अवधि   अधिकतम 7 मिनट 40 सेकंड तक हो सकती है |  औसतन यह अवधि 2.5 मिनट का होती है |  सूर्य ग्रहण को कभी भी नग्न  आंखों से नहीं देखना चाहिए क्योंकि  सूर्य ग्रहण के समय कोरोना विकिरण   से भी आँखे चले जाने का खतरा रहता है | 


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