मृदा क्या है
वैसे प्राकृतिक तत्व जो खनिज एवं जैविक पदार्थों से निर्मित होती है | मृदा कहलाती है | अर्थात चट्टानों के विघटन के फलस्वरूप तथा अपसरण से निर्मित असंगठित सूक्ष्म पदार्थ जिसमें ह्यूमस के रूप में कार्बनिक पदार्थ उपस्थित रहते हैं | सामूहिक रुप से मृदा कहलाती है |
मृदा का महत्व
मृदा जीवमंडल में ऊर्जा तथा पोषक तत्वों के स्थानांतरण के माध्यम के रूप में कार्य करती है | तथा पदार्थों के जैविक संघटको के द्वारा गमन , चक्रण एवं पुनर्चक्रण में सहायता करती है | इसके अलावा मृदा विभिन्न प्रजातियों के पौधों तथा जंतुओं के लिए आदर्श पर्यावरणीय दशाएं एवं निवास प्रदान करते हैं | मृदा में उपस्थित विभिन्न प्रकार के खनिज एवं जैविक तत्व पौधों के लिए पोषण उपलब्ध कराती है | इससे मानव समाज के लिए खाद्यान्न की आवश्यकता पूरी होती है |
मृदा के अवयव
मृदा ठोस द्रव एवं गैस तीनों प्रकार के तत्वों का मिश्रण है | पृथ्वी के शैलो से खनिज तथा जीवाणु से जैविक पदार्थ प्राप्त होता है | खनिज पदार्थ में मृदा 38% से 40% तक पाया जाता है | मृदा का ठोस भाग मृदा आयतन का लगभग 50% होता है | तथा शेष आधा भाग मृदा घोल एवं हवा होती है | जो आपस में घटते बढ़ते रहता है | क्योंकि मृदा का जल बह जाता है | तथा पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है |
मृदा निर्माण के कारक
किसी भी क्षेत्र में मृदाओ के निर्माण की प्रक्रियाए उसके गुण तथा विशेषताएं मुख्य रूप से पांच कारको द्वारा निर्धारित नियंत्रित एवं प्रभावित होती है | जो निम्नलिखित है |
मूल पदार्थ ( आधार शैल )
किसी भी क्षेत्र में मृदा का निर्माण आधार शैल के अक्षय द्वारा होता है | इस तरह मिर्जा के प्राथमिक एवं द्वितीयक खनिज आधार शैलो से ही प्राप्त होता है |
जैसे ज्वालामुखी चट्टान के अपक्षयन से काली मृदा का निर्माण होता है |
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स्थलाकृति (उच्चावच)
चट्टानों के विघटन तथा वियोजन से उत्पन्न असंगठित मलबे को मृदा के रूप धारण करने के लिए आवश्यक है | कि वह एक स्थान पर जमा रह सके जहां ढाल तीव्र होती है | वहां मलवा जब नहीं पाता इसलिए मृदा की मोटाई काफी कम होती है | जबकि समतल भूमि में मलबे के जमा होने के कारण उसकी मोटाई अधिक होती है |
समय
प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों की तरह मृदाएं भी समय के साथ विकसित होती है | तथा इसका संगठन संरचना तथा आंतरिक विशेषताएं निरंतर परिवर्तित होती रहती है | मृदा निर्माण की सभी क्रियाएं समय के अनुसार होती है | मृदा के पूर्ण विकसित होने तथा नष्ट होने एवं फिर नवीन मृदा निर्माण होने का चक्र भी समय के अनुसार होता है | सभी दशाओं के अनुकूल होने पर मृदा परिच्छेदिका का विकास होने में लगभग 200 वर्ष लग जाता है |
जलवायु
जलवायु मृदा में स्थित नमी की मात्रा तथा तापमान को निर्धारित एवं प्रभावित करती हैं | इससे अपवहन , अपक्षालन , विनिक्षेपण , हियूमसिकरण तथा खनिजीकरण की प्रक्रिया संपन्न होती है | जो मृदा के विभिन्न संस्तरो के निर्माण में सहायक होती है |
जैविक तत्व
पौधे एवं जीव जंतु मृदा निर्माण को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करता है | मृदा के लिए प्रभावकारी जीव व पौधों की जीवन प्रक्रिया महत्वपूर्ण होती है | जिसमें विशेष रूप से मृदा से सटे हुए छोटे पौधे एवं जीव सम्मिलित वनस्पति आवरण मृदा के अपरदन को भी रोकता है | साथ ही साथ वनस्पति के सड़ने गलने के उपरांत जैविक तत्व की वृद्धि के रूप में योगदान करता है |
मृदा निर्माण की प्रक्रिया
मृदा जनिक प्रक्रिया
चट्टानों तथा खनिज के ऋतुक्षरण के दौरान ऋतुक्षरित खनिज अंश और मृत एवं जीवित जीवांश पदार्थ का विषमांग मिश्रण बनता है | जो मृदा निर्माण हेतु कच्चा माल होता है |
विच्छेदन
ऋतुक्षरण के उपरांत निर्मित अपक्षयित पदार्थ का पुनः विच्छेदन होता है तथा SiO2 , Fe2O3 , Al2O3 आंशिक रूप से परिवर्तित होकर मृदा कोलाइडी अंश बनाता है | इस प्रकार संकीर्ण खनिज तरल यौगिकों विक्षेदित होता है |
संश्लेषण
विच्छेदन के दौरान बने तरल पदार्थ संयुक्त होकर मृतिका Fe , Al के हाइड्रस ऑक्साइड , Ca , Mg , K , Na आदि के कार्बोनेट के ऑक्साइडो आदि का निर्माण करते हैं |
ह्यूमसीकरण
मिट्टी की सतह पर एकत्रित अविघटित कार्बनिक अवशेष अपघटित होकर ह्यूमस का निर्माण करता है |
अपक्षालन या अपवहन
वैसी प्रक्रिया जिसने मृदा के ऊपरी संस्तरों की अवयव प्रवाहित जल के साथ निचले संस्तरों में पहुंच जाता है | अपक्षालन या अपवहन कहलाता है | नम क्षेत्रों वाली मृदाओ में SiO2 की पर्याप्त मात्रा निचले संस्तर में वह जाती है | जिसके फलस्वरूप लैटेराइट मृदाओ का निर्माण होता है | इसलिए ऊपरी संस्तर अवक्षालन संस्तर कहलाता है |
विनिक्षेपण
ऊपरी संस्तर से जल द्वारा बहाकर लाए गए पदार्थों के नीचे संस्तरों में जमा होने की प्रक्रिया विनिक्षेपन कहलाता है |
समांगीकरण
उपरोक्त प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप मृदाओ में पृथक पृथक संस्तरो के अवयव भू रासायनिक क्रियाओं व पादप तथा जंतुओं द्वारा पुनः आंशिक रूप से मिश्रित होते हैं | तथा कभी संस्तरो में स्पष्ट विभेदीकरण अत्यधिक कठिन हो जाता है |
पोडजॉलाइजेशन
यह प्रक्रिया शीत एवं शीतोष्ण जलवायु वाले उन प्रदेशों में होता है जहां अत्याधिक वर्षा होते हैं | अत्याधिक वर्षा के कारण ह्यूमस तथा सेस्कवी ऑक्साइड ऊपरी संस्तरों से अवक्षालन द्वारा निचले संस्तरों में चले जाते हैं | जिसके परिणामस्वरूप A संस्तर में क्ले , सैस्कवी ऑक्साइड तथा ह्यूमस की कमी हो जाती है | तथा सिलिका सतह पर बना रहता है साथ ही B संस्तर में इन्हीं पदार्थों का अधिकता हो जाती है | इस प्रक्रिया द्वारा निर्मित मृदाओं को पोडजॉल मृदा कहते हैं |
लैटेराइजेशन
इस प्रक्रिया मे पोडजॉलाइजेशन से विपरीत सिलिका तथा क्षारीय पदार्थों का निक्षालन होता है | ये मृदा अम्लीय होता है जिसे लैटेराइट मृदा कहा जाता है |
कैल्सिफिकेशन
इस प्रक्रिया में मृदा में कैल्शियम लवणों का संचयन होता है | यह संचयन निक्षालन में रुकावट कम वर्षा तथा क्षारीय पदार्थों की अधिकता के कारण होता है |
सैलिनाइजेशन
यह प्रक्रिया शुष्क जलवायु वाले प्रदेशों में अधिक होता है | इसमें अधिक तापक्रम कम वर्षा मृदा के अंदर अधिक लवण युक्त जल का पाया जाना जल तल का ऊंचा होना अधिक सहायक सिद्ध होता है | ऐसी मृदाएं लवणों की अधिकता के कारण खेती के लिए बेकार हो जाती है | यह लवणीय मृदा कहलाती है |
एल्केलाईजेशन
यह प्रक्रिया सैलिनाइजेशन के समान दशाओ में होता है अंतर सिर्फ इतना है | कि इसमें सोडियम लवणों का संचयन होता है अधिक पानी की उपस्थिति में जब कैल्शियम लवण निक्षालित हो जाते हैं तब लवणीय मृदाये भी क्षारीय हो जाती है | जो खेती के लिए उपयोगी नहीं होती है |
ग्लेजेशन
जलमग्न व अपचयित अवस्थाओं में यह प्रक्रिया होती है | मृदा में भूरे रंग के संस्तरण में Ca ,Mg , Fe , व Mn के अविलेय लवणों का जमाव होता है |
मृदा परिच्छेदिका
भूतल तथा उसके नीचे उपस्थित आधार शैल के ऊपरी भाग के मध्य स्थित समस्त मृदा मंडल के लंबवत स्तरो को सामूहिक रूप से मृदा परिच्छेदिका कहा जाता है | वास्तव में यह मृदा संघटको के लंबवत वितरण का प्रतिनिधित्व करती है | सामान्यतः मृदा परिच्छेदिका में ऊपर से नीचे जाने पर जैविक पदार्थों के साथ साथ ही वायु की मात्रा भी कम होती जाती है |
मृदा के प्रकार
सर्व प्रथम वर्ष 1938 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग के वैज्ञानिक सी एफ मारबूत ने विश्व स्तर पर मृदा को तीन भागों में विभक्त किया गया है |
(1) क्षेत्रीय मृदा या कटिबंधीय मृदा
(2) अंत: क्षेत्रीय मृदा
(3) अक्षेत्रीय मृदा
(1) क्षेत्रीय मृदा या कटिबंधीय मृदा
विश्व की प्रमुख मृदा वर्ग क्षेत्रीय मृदाओं के अंतर्गत आता है | इसका विस्तार सर्वाधिक क्षेत्रों में देखने को मिलता है | ये मृदाएँ जलवायु एवं वनस्पति के दीर्घकालीन प्रभाव से पूर्ण विकसित होती है | क्योंकि इस प्रकार की मृदाओं का वितरण जलवायु व वनस्पति प्रदेशों के अनुसार मिलता है | इसलिए इसे कटिबंधीय मृदा भी कहा जाता है |
कटिबंधीय मृदा दो प्रकार की होती है
(1) पेडाल्फर
(2) पेडोकल
(1) पेडाल्फर
पेडाल्फर मृदा में लोहा एवं एलुमिनियम की मात्रा अधिक होती है | यह मृदा मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में अधिक पाई जाती है | जहां अधिक वर्षा के कारण मृदा में अपक्षालन क्रिया तेजी से होती है |
इस मृदा को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया गया है |
पोडजॉल मृदा
यह मृदा उत्तरी रूस उत्तरी यूरोप एवं उतरी कनाडा के टैगा जलवायु वाले क्षेत्रों में मुख्य रूप से पाई जाती है |
इस मिट्टी की विशेषताएं - मृदा की सतह के ऊपर सुखी तथा सड़ी गली वनस्पतियों की एक परत होती है | इसके नीचे मृदा की पतली परत होती है | जीवाणु क्रिया कम होने के कारण ही ह्यूमस कच्चा रहता है | एवं जैविक पदार्थों के सड़ने गलने के कारण हियूमिक अम्ल का निर्माण होता है | जिसके कारण मृदा अम्लीय हो जाती हैं | उस मिटटी में अपक्षालन क्रिया तीव्र गति से होती है |
इस मिट्टी में गेहूं एवं सूरजमुखी जैसे फसलों की कृषि के प्रयास किए जा रहे हैं | अपक्षालन की अभिक्रिया एवं अम्लीय होने के कारण यह मिट्टी काफी कम उपजाऊ होती है |
लाल मृदा
यह मिट्टी उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधो के आर्द्र भागों में विस्तृत रूप से पाई जाती है |
इस मिट्टी की विशेषताएं लोहे के ऑक्साइड के कारण इस मिट्टी का रंग लाल होता है | जीवाणु की क्रिया काफी तीव्र गति से होने के कारण जीवाणु द्वारा ही ह्यूमस का उपयोग कर लिया जाता है | जिसके फलस्वरूप इस मिट्टी में ही ह्यूमस की कमी आ जाती है | अधिक वर्षा के कारण अपक्षालन की क्रिया भी तीव्र गति से होती है | जिसके कारण इसकी मिट्टी में उर्वरा शक्ति की मात्रा कम होती है |
इस मिट्टी में परंपरागत रूप से मोटे अनाजों की कृषि की जाती है | वर्तमान समय में इस मिट्टी में रबड़ एवं कहवा की बागवानी कृषि की जा रही है |
लैटेराइट मिट्टी
यह मिट्टी अनूपजाऊ होती है | तथा यह आर्द एवं उष्ण जलवायु जैसी विषुवत रेखीय जलवायु सवाना एवं मानसूनी जलवायु के आर्द्र भागो में पाई जाती हैं |
इस मिट्टी की विशेषताएं अपक्षालन तीव्र प्रक्रिया के कारण इस मिट्टी में सिलिका एवं पोषक तत्वों का अभाव होता है | अधिक वर्षा एवं गर्मी के कारण जीवाणु क्रिया तेजी से होती है | एवं जीवाणु द्वारा ह्यूमस का उपयोग कर लिया जाता है | जिसके फलस्वरूप इसमें उर्वरा शक्ति की मात्रा काफी कम हो जाती है |
इस मिट्टी में मोटे अनाजों दलहन तिलहन एवं बागवानी फसलों की कृषि की जाती है | यह मिट्टी जंगली वृक्षों घास एवं झाड़ियों के लिए उपयुक्त है |
काली मिट्टी
यह मिट्टी काले रंग की तथा उपजाऊ होती है | तथा यह समशीतोष्ण कटिबंध की महादेशीय जलवायु के क्षेत्र में पाई जाती है | रूस के स्टेपी क्षेत्र एवं उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी क्षेत्र में यह मिट्टी विस्तृत रूप में पाई जाती है | इसके अलावा अर्जेंटीना के पंपास दक्षिण अफ्रीका के बेल्ड एवं ऑस्ट्रेलिया के डाउन्स के मैदानों में भी या मिट्टी पाई जाती है |
इस मिट्टी की विशेषताएं हल्की वर्षा के कारण इस मिट्टी में अपक्षालन की क्रिया नहीं होती है | घास के सड़ने गलने के कारण इस मिट्टी में कैल्शियम की प्रचुरता होती है | इस मिट्टी में ह्यूमस पर्याप्त मात्रा में रहती है | जिसके कारण यह मिट्टी उपजाऊ होती है | इस मिट्टी को रोटी की टोकरी कहा जाता है |
इस मिट्टी में मुख्य रूप से गेहूं , जौ , जई , जैसे फसलों की कृषि की जाती है |
(2) पेडोकल मृदा
पेडोकल मृदाओं में कैल्शियम की मात्रा अधिक होती है | यह मृदाएं शुष्क एवं अर्ध शुष्क देशों में पाई जाती है | क्षेत्रों में वाष्प उत्सर्जन की क्रिया वर्षण की तुलना में कुछ अधिक होती है | जिसके फलस्वरूप केशिका कर्षण क्रिया के द्वारा कैल्शियम ऊपर चला जाता है |
(2) अंत: क्षेत्रीय मृदा
अंत: क्षेत्रीय मृदा को निम्न भागों में बांटा जा सकता है
लवणीय मृदा
इस प्रकार की मिट्टी उन क्षेत्रों में मिलती है | जहां वाष्पीकरण की क्रिया अधिक होती है | एवं जल निकासी का उचित सुविधा का अभाव होता है | जहां ग्रीष्म ऋतु काफी गर्म एवं शुष्क होती है | वहां लवणीय मृदा पाई जाती है |
क्षारीय मृदा
यह मृदा लवणीय मृदा वाले क्षेत्रों में है | लेकिन कुछ अधिक वर्षा वाले भागों में मिलती है |
इस मिट्टी में सामान्यतः कोई मुख्य फसल की कृषि संभव नहीं हो पाती है | हालांकि कुछ जगहों पर नारियल तथा खजूर को बागानी कृषि के तहत उगाया जाता है |
(3) अक्षेत्रीय मृदा
अक्षेत्रीय मृदा को निम्न भागों में बांटा गया है
जलोढ़ मिट्टी
विश्व की सभी बड़ी नदियों की घाटियों में यह मिट्टी पाई जाती है | इसका उत्तम उदाहरण है , नील नदी की घाटी गंगा ब्रह्मपुत्र के मैदानी भाग इत्यादि | यह मिट्टी आवश्यक खनिज तत्वों की दृष्टि से धनी होती है | मृदा की गहराई भी अधिक होती है | यह विश्व की सर्वाधिक उपजाऊ मृदाओ में से एक है |
चावल एवं जूट की कृषि के लिए यह मिट्टी विशेष रूप से उपयोगी होती है | इसके अलावा गेहूं गन्ना कपास आदि फसलो की कृषि भी की जाती है |
लोएस मिट्टी
इस मिट्टी का सबसे विस्तृत क्षेत्र उत्तर पश्चिम चीन में है | जहां मध्य एशिया एवं मुख्य रूप से गोबी मरुस्थल से वायु द्वारा लाए गए धूल कणों के द्वारा इसका निर्माण हुआ है |
पर्वतीय मृदा
यह मिट्टी विश्व के अधिकांश पर्वतों की ढालो एवं पर्वतीय प्रदेशों में पाई जाती है |
अनुकूल ढाल वाले क्षेत्रों में इस मिट्टी में बागानी फसलों की कृषि की जाती है | चाय मसाला रसदार फल कहवा और रबड़ आदि इस मिट्टी में उपजाए जाते हैं |
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